तकनीकी और मौलिक अनुसंधान

साल 1967 में देश में पड़े भीषण अकाल में बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात करना पड़ा था। इस वजह से सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में अनुसंधान के काम पर जोर दिया गया। इससे एक तरफ सिंचित जमीन का क्षेत्रफल बढ़ने लगा, तो वहीं दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में विविधता लाने कोशिश की जाने लगी।

इस कामको संगठित रूप देने के लिए साल 1929 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का गठन हुआ। केन्द्र सरकार से जुड़े सभी संस्थानों को इसके तहत लाया गया। धीरे-धीरे खाद्यान्न, फलसब्जी के साथ ही जानवरों के लिए भी अनुसंधान खोले गए। लगातार अनुसंधान द्वारा खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों की नई उपजाऊ किस्मों का विकास हुआ।

किसी काम को संगठित रूप देने से अधिक पैसा बनाने में कामयाबी मिली। परिषद की अगुआई में देश में हरित क्रान्ति आई। देश में खाद्यान्नों का रिकॉर्ड उत्पादन शुरू हो गया, तेज गति से बढ़ती आबादी तकनीकी और मौलिक अनुसंधान के बावजूद भी न सिर्फ खाद्यान्न, फलसब्जी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आई, बल्कि कुछ उत्पादों के निर्यात में भी हमें कामयाबी मिली।

इस समय देश की आबादी 135 करोड़ के पार हो चुकी है। इतनी विशाल आबादी को भी भोजन के लिए खाद्यान्न उपलब्ध है। ऐसी हालत तब है, जब खेती की जमीन धीरे-धीरे घटती जा रही है।

शहरों का क्षेत्रफल आजादी के समय 7 फीसदी से बढ़कर 35 फीसदी हो गया है। यह वृद्धि क्षेत्र में व्यापक काम के चलते हुई है।

देश में किसानों का अनुसंधान संस्थानों से सीधा जुड़ाव तकनीकी और मौलिक अनुसंधान हुआ है। इन संस्थानों के वैज्ञानिक नियमित अंतराल पर इलाके और गांवों का दौरा करते रहते हैं और किसानों से रूबरू होकर उनको तकनीकी जानकारी देते हैं।

इस तरह के अनुसंधान और प्रसार के काम में भाषा की अहम भूमिका होती है। तकरीबन 200 सालों के ब्रिटिश राज के होने की वजह से भाषा के रूप में अंग्रेजी का बोलबाला देश के सभी क्षेत्रों में अभी तक गहराई से बना हुआ है। शिक्षा विशेष रूप से कृषि शिक्षा व अनुसंधान के क्षेत्र में आज भी अग्रेजी महत्त्वपूर्ण भाषा बनी तकनीकी और मौलिक अनुसंधान हुई है।

अनुसंधान के काम को लेखनी में लगभग अग्रेजी का ही प्रयोग हो रहा है, जिसका साहित्यिक महत्व है, पर इसकी जांच खेत में और किसानों के बीच में होती है।

ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाएं खासकर मान्यताप्राप्त भाषाओं का महत्व काफी बढ़ जाता है। अगर इन भाषाओं के जरिए बातचीत नहीं की जाएगी, तो किसानों को जो फायदा होना चाहिए, वह नहीं मिल सकेगा। यदि उनकी भाषा में किसानों को जानकारी दी जाती है, तो वे अच्छी तरह से समझ सकेंगे और तकनीक अपनाने में भी उनकी कोई हिचक नहीं होगी।

भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में मान्यताप्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। हिन्दी देश के तकरीबन 57 फीसदी भूभाग में बोली व समझी जाने वाली भाषा है।

भारत में हिंदीभाषी राज्यों का निर्धारण भाषा के आधार पर हुआ है और उन सभी राज्यों में राज्य सरकार के काम स्थानीय भाषा में ही होते हैं। इन सभी मान्यताप्राप्त भाषाओं काक अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र में है और इसमें साहित्य का काम भी लगातार हो रहा है। इनमें से ज्यादातर भाषाओं के अपने शब्दकोश हैं और फिल्में भी बनाई जा रही हैं, खासतौर पर तमिल, बंगला, मलयालम, मराठी व तेलुगु फिल्म उद्योग अपने-अपने क्षेत्र में बहुत ही लोकप्रिय है।

इसके अलावा उड़िया, असमी, पंजाबी, भोजपुरी, नागपुरी वगैरह भाषाओं में भी फिल्में लगातार बन रही हैं और पसंद भी की जा रही हैं।

ऐसी हालत में कृषि अनुसंधान को स्थानीय भाषा से जोड़ना समय की जरूरत है, ताकि हम अपनी उपलब्धियों को किसानों तक आसानी से पहुँचा सकें। हालांकि मान्यताप्राप्त भाषाओं में कुछ भाषाएं ऐसी हैं, जिनका प्रभाव क्षेत्र बहुत ही सिमटा हुआ है, लेकिन ज्यादातर भाषाएं बड़े क्षेत्रों में फैली हैं और कार्यालय के काम से लेकर दिनभर के काम तक निरंतर प्रयोग की जा रही है।

अगर हमें अनुसंधान की उपलब्धियों से किसानों को जोड़ना है यह जरूरी है कि अपनी बातों को उनकी भाषा और बोली में उन तक पहुंचाया जाए, यह बहुत कठिन नहीं है।

देश में सबसे पहले हिंदी का नाम आता है और कृषि से जुड़े साहित्य भी हिंदी में लगातार तैयार हो रहे हैं। भारतीय किसान संघ परिषद के ज्यादातर संस्थानों में प्रशिक्षण सामग्री और सम्बन्धित फसल से जुड़ी अनुसंधान सम्बन्धी उपलब्धियां हिंदी में ही मौजूद हैं। इसे और भी बढ़ावा देने की जरूरत है। हमेशा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रस्तुतीकरण और भी सुगम भाषा में हो।

परिषद के सभी संस्थानों में राजभाषा प्रकोष्ठ की मदद से ही काम किया जा रहा है। हिंदी भाषी वैज्ञानिक शोध भी सराहनीय योगदान दे रहे हैं। इसके बावजूद हिंदी में छपने वाले शोध साहित्य कम हैं।

कुछ वैज्ञानिक संगठनों, संस्थानों द्वारा हिंदी में शोध पत्रिकाएं छप रही हैं और कुछ एक और काम करने के लिए लगातार संघर्षरत हैं और आगे बढ़ रही हैं।

इस क्षेत्र तकनीकी और मौलिक अनुसंधान में प्रगति संतोषजनक है, पर हिंदी के प्रभाव क्षेत्र को देखने के बाद यह काफी कम प्रतीत होता है। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों को पहल करनी होगी। उन्हें मौलिक अनुसंधान में हिंदी व भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना होगा, तभी किसान उसका फायदा उठा सकेंगे। इसी तरह कई अन्य मान्यताप्राप्त भारतीय भाषाएं ऐसी हैं, जिनका प्रभाव अपने क्षेत्र में तो बड़ा है ही, साथ ही, वे अपने क्षेत्र में लोगों की जिंदगी से सांस्कृतिक व भावनात्मक रूप से बहुत गहराई से जुड़ी हैं। जिस तरह से हिंदी भाषियों के पास हिंदी में अनुसंधान संबंधी किसी सामग्री के साथ अपनी बातें पहुँचाई जा सकती हैं, वैसे दूसरी भारतीय भाषाओं में भी धान की उपलब्धियों को रूपांतरित कर उसी प्रभाव क्षेत्र तक पहुँचाया जा सकता है।

कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में भी व्यापक रूप से अंग्रेजी का ही प्रयोग हो रहा है, पर प्रशासन का मकसद किसान हैं और किसानों की आबादी कई गुना ज्यादा है। वे गंवई इलाके में रहते हैं, इसलिए कृषि अनुसंधान संगठनों को इसे गम्भीरता से लेने की जरूरत है। अगर मौलिक रूप से इन भाषाओं के काम करने में थोड़ी कठिनाई हो, तो अनुवाद एक बेहतर साधन है। इसके द्वारा हम उन भाषाओं में बेहतरीन साहित्य तैयार कर सकते हैं, जिनका फायदा किसानों को मिले।

कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे हिंदी भाषा के साथ सकारात्मक सोच से काम करें, जिससे हिंदी में साहित्य को आगे बढ़ने का मौका तो मिलेगा ही और अपनी बात को किसानों तक आसानी से पहुँचाया जा सकेगा। इससे प्रदेश व देश की उत्पादकता में काफी अंतर देखने को मिलेगा।

हमारा मानना है कि हिंदी साहित्य अभी भी किसानों के अंदर बहुत अच्छी पैठ बनाए हुए हैं, इसलिए वैज्ञानिकों को अपनी करनी और कथनी में अंतर करना होगा। किसानों तक आसान भाषा में साहित्य को पहुँचाने के लिए अपना समर्थन करना होगा। इसके लिए जरूरत केवल सामाजिक क्रान्ति के साथ-साथ वैज्ञानिकों को वैचारिक क्रान्ति में बदलाव लाने की है। यदी हम अपनी वैचारिक क्रान्ति में बदलाव लाएंगे, तो हिन्दी साहित्य को आसानी से किसानों में लोकप्रिय बना सकेंगे।

शोध के प्रकार (Type of Research)

समाज में निरंतर बढ़ती हुई आवश्यकता एवं सुविधाओं की मांग ने नए-नए आविष्कारों को जन्म दिया है। आज शोध एवं विकास गतिविधियां एकल प्रयास ना होकर सामूहिक या संगठित प्रयास बन चुका है। सरकार ने भी शोध गतिविधियों के महत्व को समझा है और उन्हें अनुदान एवं विविध प्रकार से मदद देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है। मुख्यतः शोध कार्य दो स्तर पर हो रहा है – एक विश्वविद्यालय स्तर पर जिसमें विद्यार्थी शोध उपाधि जैसे एम. फिल या पी-एच.डी. के लिए शोध कार्य करता है दूसरे स्तर पर सरकार एवं निजी संस्थाएं शोध एवं विकास गतिविधियों को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रायोजित करती है। आज प्रत्येक विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्र और अविकसित राष्ट्र अपने अपने संसाधनों और क्षमता के अनुसार शोध कार्य में लगे हुए हैं और वह प्रगति शील है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सामाजिक विज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में हो रहे शोध कार्यों में प्रयोग की जाने वाली प्रक्रियाएं, तकनीकी भिन्न-भिन्न हो सकती है। शोध की प्रकृति के आधार पर निम्न प्रकार के शोध कार्य किया जा सकता है –

1. मौलिक शोध (Pure/Basic/Fundamental Research)

मौलिक शोध के द्वारा नवीन जान की विधि होती है इसमें अंतर्ज्ञान का प्रवाह अधिक होता है और सैद्धांतिक ज्ञान की खोज पर अधिक जोर दिया जाता है और सैद्धांतिक ज्ञान भविष्य में अनुप्रयुक्त कर नवीन ज्ञान की विधि की जा सकती है मौलिक शोध का स्वरूप बौद्धिक तथा सैद्धांतिक होता है इसमें नवीन सिद्धांतों एवं नियमों की खोज की जाती है इस प्रकार के अनुसंधान का प्राथमिक उद्देश्य सामान्य करना के द्वारा नए सिद्धांत तथा नियमों को विकसित करना होता है मौलिक शोध में शोध शोध कार्य विशुद्ध रूप से ज्ञान प्राप्ति के लिए क्या जाता है मौलिक शोध बौद्धिक प्रश्नों और जिज्ञासाओं का उत्तर खोजने का प्रयास होता है इसमें पुराने सिद्धांतों नियमों और सूत्रों की पुनर बच्चा एवं उसका सत्यापन किया जाता है यह मूलतः बौद्धिक समस्याओं के समाधान से संबंधित होता है।

2. व्यवहारिक शोध (Applied Research)

व्यवहारिक शोध अनुप्रयोग से मानव समुदाय की व्यवहारिक कठिनाइयों का हल खोजा जाता है। यह मूल रूप से प्रायोगिक समस्याओं के हल करने से संबंधित होता है। यह वर्तमान की राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आ रही समस्याओं का हल खोजने की दिशा में कार्य करती है। वस्तुतः व्यवहारिक शोध व्यवहारिक होता है और इसका मुख्य उद्देश्य उपयोगितावादी होता है जो सामान्यतः व्यवहारिक समस्याओं का समाधान करता है। मौलिक शोध द्वारा जहां सिद्धांत और सूत्र खोजे जाते हैं वही व्यवहारिक शोध उन सूत्रों सिद्धांतों की सहायता से विशेष समस्या के समाधान से संबंधित होते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में व्यवहारिक शोध के द्वारा नवीन यंत्र नई तकनीक की खोज की जाती है ताकि देश और राष्ट्र विकास की गति बना रहे। समाज की शैक्षणिक, आवासीय, तकनीकी, आर्थिक आदि समस्याओं के समाधान में व्यवहारिक शोध उपयोगी साबित तकनीकी और मौलिक अनुसंधान हुई है।

3. क्रियात्मक शोध (Action Research)

यद्यपि क्रियात्मक शोध व्यवहारिक शोध के अंतर्गत आता है। स्थानीय एवं तत्कालिक समस्याओं के समाधान के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक विधि के उपयोग के द्वारा स्थानीय या विशेष समस्याओं का समाधान प्रदान करना होता है। सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि से संबंधित तत्कालिक समस्या का समाधान क्रियात्मक शोध के माध्यम से खोजा जा सकता है। इस प्रकार क्रियात्मक शोध का अत्यधिक महत्व है।

4. अन्तर्विषयी शोध (Interdisciplinary Research)

जब हम किसी शोध में विभिन्न विज्ञानों, सिद्धांतों एवं पद्धतियों का प्रयोग करते हैं तब उस शोध को अन्तर्विषयी शोध कहते हैं। प्रत्येक विज्ञान के अध्ययन की अलग-अलग विधियां या पद्धतियां होती हैं। उन सबका अपना – अपना दर्शन, इतिहास, स्वयं की मौलिक अवधारणाएं, शब्दावली तथा स्वयं की विषय वस्तु आदि होते हैं। अन्तर्विषयी शोध में विभिन्न विज्ञानों के विशेषज्ञ अपनी अपनी सेवाओं को इस प्रकार देते हैं ताकि उनके सिद्धांतों और विधियों में एकीकरण हो सके। उदाहरण स्वरूप जिस प्रकार किसी आर्केस्ट्रा में अलग-अलग बाद्य यंत्र काम करते हुए भी एकता स्थापित करते हैं उसी प्रकार अन्तर्विषयी शोध में वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिक विज्ञान वेता, भूगोल विद, दार्शनिक आदि अपने-अपने विज्ञान के अनुशासन का पालन करते हुए समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं। अन्तर्विषयी शोध की सबसे विशिष्ट विशेषता यह है कि वर्तमान सामाजिक जीवन में जटिल बने हुए मनोवैज्ञानिक एवं आर्थिक कारकों के अध्ययन तथा विवेचना को सहज बना देता है। वर्तमान परिदृश्य में अन्तर्विषयी शोध की आवश्यकता प्रत्येक क्षेत्र में स्वीकार किया जा रहा है।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग

जनवरी, 2009 में प्रारंभ किए गए इस पहल का उद्देश्य पूर्व-प्रतिस्पर्धी अनुसंधान, उन्मुख अनुसंधान आधारित नवाचार और मानव व संस्थागत विकास के माध्यम से स्वच्छ ऊर्जा की लागत को कम करना है तथा राष्ट्रीय अनुसंधान दक्षता विकसित करना है।

संक्षिप्त विवरण:

सेरी (सीईआरआई) एक पौधशाला की देखरेख करने वाले के समान है जो अधिक से अधिक संख्या में बीजों और पौधों का पोषण करता है और आशा करता है कि एक दिन यह फल देनेवाला पेड़ हो जाएगा। सेरी सौर ऊर्जा के राष्ट्रीय मिशन में एसएंडटी आधारित सफलताओं को बढ़ावा देता है।

लक्ष्य और उद्देश्य:

सेरी की परिकल्पना में शामिल हैं -

  1. अनुसंधान के अंतिम खंड को समर्थन प्रदान करना जहाँ उद्योग जगत में प्रचलित अभ्यास से उन्नत ज्ञान को महत्व प्रदान किया जाता हो
  2. उपयोगकर्त्ता की जरूरत को ध्यान में रखते हुए भारत-केंद्रित नवाचार विकसित करना और जहाँ तक संभव हो शिक्षाविदों और उद्योग जगत के साथ सहयोग स्थापित करना ताकि इन सहयोगों से मूल्य प्राप्त किया जा सके।
  3. तकनीकी और मौलिक अनुसंधान
  4. स्वच्छ ऊर्जा के लिए आरएंडडी आवश्यकताओँ के अनुरूप शोधकर्त्ताओं को विकसित करना।

कार्यक्षेत्र

पहल के कार्यक्षेत्र में शामिल हैं – सौर उपकरणों, उप-प्रणाली और प्रणालियों के लिए मौलिक अनुसंधान। पहल नये विचारों / अवधारणाओँ के मूल्यांकन का समर्थन करता है ताकि इन उभरती हुई तकनीकों का प्रौद्योगिक उत्पाद के निर्माण में उपयोग किया जा सके।

दबाववाले क्षेत्र

महत्वपूर्ण क्षेत्र -

  1. सौर ऊर्जा सामग्री
  2. तकनीकी और मौलिक अनुसंधान
  3. सौर ऊर्जा उपकरण (उपयोगकर्त्ता प्रत्यक्ष अनुप्रयोग)
  4. भंडारण उपकरण
  5. ग्रिड से जोड़ने के लिए विद्युत इलेक्ट्रॉनिक्स
  6. सौर ऊर्जा अनुसंधान के लिए क्षमता निर्माण
  7. सौर फोटो वोल्टिक, सौर तापीय, भंडारण, स्मार्ट ऊर्जा ग्रिड और ऊर्जा दक्षता के लिए प्रणालियों / उप-प्रणालियों को विकसित करना
  8. सौर ताप प्रौद्योगिकी समाधान (25 किलोवॉट से 1 मेगावाट)
  9. सौर फोटो वोल्टिक प्रौद्योगिकी समाधान
  10. देश की आवश्यकता के अनुरूप कोई अन्य विषय

कार्यान्वयन दृष्टिकोण:

कार्यान्वयन दृष्टिकोण निम्न है

  1. चुनौतियों की पहचान करना, अनुसंधान की समस्याएं / विषय और विषयगत प्रस्तावों का संग्रह करना
  2. हितधारकों के परामर्श के माध्यम से गतिविधियों का स्वरूप तैयार करना;
  3. मंत्रालयों के साथ मजबूत संबंध के माध्यम से समन्वय का प्रयास करना/li>
  4. देश की वैज्ञानिक ताकत और वैश्विक विशेषज्ञता का उपयोग करते हुए सशक्त ज्ञान-नेटवर्क का निर्माण करना और समाधान विकसित करना।

लाभार्थी:

गतिविधियों के उद्देश्य के आधार पर, निम्न व्यक्ति / संगठन परियोजना का प्रस्ताव दे सकते हैं : -

  1. सार्वजनिक / निजी / स्वैच्छिक क्षेत्र में कार्य कर रहे शिक्षाविद और वैज्ञानिक, विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कार्य कर रहे स्वैच्छिक संगठन
  2. अकादमिक और अनुसंधान व विकास संस्थान, उद्यम, विज्ञान व प्रौद्योगिकी परिषद् जैसे राज्य सरकार के निकाय, सौर ऊर्जा के क्षेत्र में कार्य कर रहे स्वायत्त निकाय और
  3. यदि परियोजना गतिविधियों में बहु-विभागीय और बहु-संस्थागत भागीदारी की आवश्यकता है तो इसके लिए व्यक्तियों / संस्थाओं के नेटवर्क का उपयोग किया जा सकता है। ऐसे संभावित विकल्पों में शामिल है – उद्योग जगत / एनजीओ के सहयोग से अकादमी / आरएंडडी संस्थाओं द्वारा किये गये कार्य; आरएंडडी संस्थान / उद्योग जगत / एनजीओ के विभाग, एसएंडटी क्षेत्रीय समूह और स्थानीय पंचायत।

कवरेज क्षेत्र

कार्यक्रम को पूरे देश में लागू करना, इस पहल का लक्ष्य है।

समय सीमा:

सेरी (सीईआरआई) के अन्तर्गत केवल विशिष्ट प्रस्तावों पर ही विचार किया जाएगा। सेरी कार्यक्रम के तहत प्राथमिकता वाले क्षेत्रों और प्रतिबद्धताओं का उल्लेख प्रत्येक वर्ष प्रस्तावों के आमंत्रण में किया जाता है जिसे डीएसटी की वेबसाइट पर अप्रैल महीने में अपलोड किया जाता है। प्रस्ताव दस्तावेज में मूल्यांकन के मानकों और मूल्यांकन प्रक्रिया का उल्लेख होता है। इच्छुक उम्मीदवार आमंत्रण के अनुरूप आवेदन कर सकते हैं। हालांकि जिन परियोजनाओँ को पूर्व में सहयोग प्रदान किया गया है और जिन्हें तार्किक समापन के लिए अगले चरण में भी सहयोग की आवश्यकता है तो ऐसी परियोजनाओँ पर आमंत्रण के कार्यक्षेत्र से पृथक होकर भी विचार किया जा सकता है।

नोट: स्वच्छ ऊर्जा अनुसंधान पहल (सीईआरआई) बहु-विभागीय और बहु-संस्थागत नेटवर्क वाली शोध परियोजनाओं को प्राथमिकता देता है और भागीदारों के बीच समन्वय स्थापित करता है ताकि वैश्विक मानकों के अनुरूप कुशल उपकरणों / प्रणालियों को विकसित किया जा सके। वैज्ञानिक विकास का परिणाम मापने लायक होना चाहिए और इसे स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में तकनीकी विकास का माध्यम बनना चाहिए। परियोजना के तकनीकी उत्पादों में व्यवसाय के सामान्य परिदृश्य को बदलने की क्षमता होनी चाहिए।

स्वच्छ ऊर्जा भंडारण (एमईएस) – 2018 के लिए सामग्री पर ओरियंटल रिसर्च एंड टेक्नोलोजी डेवलपमेंट प्रस्तावों के लिए आमंत्रण 125.39 KB - Application Format 309.86 KB 191.04 KB

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अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें :

डॉ. राजीव शर्मा
वैज्ञानिक-जी / प्रमुख
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग
प्रौद्योगिकी भवन
न्यू महरौली रोड
नई दिल्ली-110 016.
टेली: 011-26590469
ईमेल:rajivdst[at]nic[dot]in

'शोध में तकनीक लगाएगी कॉपी-पेस्ट पर रोक'

- शकुंतला यूनिवर्सिटी में साइंटिफिक राइंटिंग पर हुआ नैशनल सेमिनारएनबीटी, लखनऊ'आज यूनिवर्सिटीज में गुणवत्तापरक और मौलिक शोध की जरूरत है। रिसर्च .

- शकुंतला यूनिवर्सिटी में साइंटिफिक राइंटिंग पर हुआ नैशनल सेमिनार

'आज यूनिवर्सिटीज में गुणवत्तापरक और मौलिक शोध की जरूरत है। रिसर्च में कॉपी पेस्ट की प्रथा को खत्म करने के लिए तकनीक का तकनीकी और मौलिक अनुसंधान प्रयोग होना बेहद जरूरी है। साइंटिफिके शोध के प्रकाशन के लिए लैटेकस एक बेहतर प्रणाली है। इसके प्रयोग से इसके प्रकाशन में गुणवत्ता आएगी।' यह बात मंगलवार को डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास यूनिवर्सिटी के वीसी प्रो. निशीथ राय ने कही। वह यूनिवर्सिटी में एक सेमिनार को संबोधित कर रहे थे।

साइंटिंफिक राइटिंग यूजिंग लैटेक्स विषय पर शकुंतला यूनिवर्सिटी में सेमिनार की शुरुआत हुई। इसमें वीसी ने बताया कि वैज्ञानिक शोधपत्रों के प्रकाशन के लिए प्रयोग किया जाने वाला एक सॉफ्टवेयर है। इसका प्रयोग कोई भी कर सकता है। मुख्य अतिथि के तौर पर बीबीएयू की रजिस्ट्रार सुनीता चंद्रा ने कहा कि वैज्ञानिक लेखन आसान नहीं होता है। शोधार्थियों को चाहिए कि वे शोध एवं वैज्ञानिक लेखन में लैटेक्स तकनीक का प्रयोग करें। इससे उनकी शोध की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। कार्यक्रम में 105 शोधार्थी शामिल हुए।

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तकनीकी और मौलिक अनुसंधान

आई आई एस आर न्यूज़

फसल सुधार विभाग

उपोष्ण क्षेत्र के गन्ना किस्मों के मूल्यांकन के लिए एक क्षेत्रीय केंद्र के रूप में गन्ना प्रजनन संस्थान, कोयंबटूर के नियंत्रण के तहत वनस्पति विज्ञान और प्रजनन अनुभाग के रूप में एक इकाई भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ में स्थापित की गई थी। वर्ष 1969 में इस इकाई को भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ में स्थानांतरित किया गया। इस विभाग को उपोष्णकटिबंध भारत में गन्ने एवं चुकंदर के पारगमन के आनुवांशिक मूल्यांकन और उनके जननद्रव्य मूल्यांकन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। बाद में इस विभाग को वनस्पति और प्रजनन विभाग का नाम दिया गया। इसके बाद 1989 में फसल सुधार विभाग के रूप में पुनः नामित किया गया। तकनीकी और मौलिक अनुसंधान संस्थान के शासनादेश के अनुसार इस विभाग ने उपोष्णकटिबंध में चीनी फसलों (गन्ना और चुकंदर) पर मौलिक और अनुप्रयुक्त अनुसंधान, जर्मप्लाज्म के मूल्यांकन, संवर्धन और किस्म सुधार के लिए शुभारंभ किया।

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